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कनक-कटोरा प्रातहीं, दधि घृत सु मिठाई / सूरदास

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कनक-कटोरा प्रातहीं, दधि घृत सु मिठाई ।
खेलत खात गिरावहीं, झगरत दोउ भाई ॥
अरस-परस चुटिया गहैं, बरजति है माई ।
महा ढीठ मानैं नहीं, कछु लहुर-बड़ाई ॥
हँसि कै बोली रोहिनी, जसुमति मुसुकाई ।
जगन्नाथ धरनीधरहिं, सूरज बलि जाई ॥

भावार्थ :-- सवेरे ही सोने के कटोरे में दही, मक्खन और उत्तम मिठाइयाँ लिये भाई (श्याम-बलराम) खेल रहे हैं, खाते जाते हैं, कुछ गिराते जाते हैं और परस्पर झगड़ते भी हैं । झपटकर एक-दूसरे की चोटी पकड़ लेते हैं, मैया उन्हें मना करती है । माता रोहिणी ने हँसकर कहा -`दोनों अत्यन्त ढीठ हैं, कुछ भी छोटे बड़े का सम्बन्ध नहीं मानते' मैया यशोदा (यह सुनकर) मुस्करा रही हैं । सूरदास तो इन जगन्नाथ श्यामसुन्दर और धरणीधर बलराम जी पर बलिहारी जाता है ।