भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कनक-रतन-मनि पालनौ, गढ़्यौ काम सुतहार / सूरदास

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

राग जैतश्री

कनक-रतन-मनि पालनौ, गढ़्यौ काम सुतहार ।
बिबिध खिलौना भाँति के (बहु) जग-मुक्ता चहुँधार ॥
जननि उबटि न्हवाइ कै (सिसु) क्रम सौं लीन्है गोद ।
पौढ़ाए पट पालनैं (हँसि) निरखि जननि मन-मोद ॥
अति कोमल दिन सात के (हो) अधर चरन कर लाल ।
सूर स्याम छबि अरुनता (हो) निरखि हरष ब्रज-बाल ॥

भावार्थ :-- बढ़ई ने रत्न तथा मणियों से जड़ा पलना बड़ी कारीगरी करके बनाया है । उसमे अनेक भाँति के खिलौने लटक रहे हैं और चारों ओर जगमुक्ता की लड़ियाँ लगी हैं । माता ने उबटन लगाकर, स्नान कराके धीरे से शिशु को गोद में उठाया और पलने में सुलाकर वस्त्र ऊपर डाला, फिर हँसकर (पुत्र को ) देखकर माता के मन में बड़ा आनन्द हुआ । अभी अत्यन्त कोमल हैं, केवल सात दिन के हैं, अधर, चरन तथा कर लाल-लाल हैं, सूरदास जी कहते हैं--श्यामसुन्दर की अरुणिम छटा देखकर व्रज की नारियाँ हर्षित हो रही हैं ।