भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कनक दीयट दियरा बरै, दियरा बरै हे अकास / अंगिका लोकगीत

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

   ♦   रचनाकार: अज्ञात

खीर-खिलाई की विधि संपन्न हो रही है। दुलहा नेग के लिए रूठकर बैठा है। खीर नहीं खा रहा है। ससुर, सास, साले, सलहज सभी उसे मनाते हैं और हाथी, घोड़े इत्यादि देने का वादा करते हैं, फिर भी दुलहा नहीं मानता। अंत में साली आती है, जो उसकी पत्नी की छोटी बहन है और अभी अविवाहिता है। वह कहती है- ‘मैं तो आपकी गरीब साली हूँ। मेरे पास फूटी कौड़ी भी नहीं। मैं क्या दूँ? आप ही मुझे कुछ दीजिए। कृपा कर अपनी सूरत और स्नेह मुझे दे जाइए और मुँह खोलिए तथा विधि पूरी कीजिए।’ साली के प्यर भरे वचन तथा परिहास से दुलहा पानी-पानी हो जाता है, उसका सारा मान भंग हो जाता है।

कनक दीयट<ref>दीपक रखने का आधार</ref> दियरा बरै, दियरा बरै हे अकास।
आहो, दुलहा दुलहिन सोभे, सोने चौकी हे॥1॥
दुलहा के सोने के मौरिया, ओय<ref>उसमें</ref> में लागल मोती के लड़िया।
आहो, ओय में इतर देहु छिटकाय हे॥2॥
ससुर मनावन चललै, दुलहा बाबू।
लै लेहो<ref>ले लो</ref> हथिया पचास हे, से सिर डोलाबहु हे॥3॥
हाथी राखु हथिसार, हमरा हथिया हजार हे।
आहो, हम नहिं भूखल, तोरऽ हाथी के हे॥4॥
सार मनाबन चलला, दुलहा बाबू।
लेहो घोड़बा पचास, आहो घोड़बा लगाम धरि लेहो हे॥5॥
घोड़बा राखहु घोड़सार, हमरा घाड़बा हजार हे।
आहो, हम नहिं भूखल, तोरऽ घोड़ा के हे॥6॥
सासु मनावन चलली, दुलहा बाबू।
बाबू, लै लेहो मानिक मुनरिया, से मुखहूँ सेॅ बोलहु हे॥7॥
धरि राखु<ref>पकड़ रखो; अपने पास रख लो</ref> सोने के मुनरिया, हमरा मुनरी हजार हे।
आहो, हम नहिं भूखल, तोरऽ मुनरि के हे॥8॥
सरहज मनाबन चलली, दुलहा बाबू।
बाबू, लै लेहो गिरमल हार<ref>एक प्रकार का कीमती हार</ref>, से मुखहूँ सेॅ बोलहु हे॥9॥
धरि राखहु गिरमल हार, हमरा गहना हजार हे।
आहो, हम नहिं भूखल, तोरऽ हरबा के हे॥10॥
सारी<ref>साली</ref> मनाबन चललि दुलहा बाबू, हम सारी गरीब हे।
आहो, हमरो न फुटली<ref>फूटी हुई</ref> कौड़िया, की देबो तोरा दान हे॥11॥
अपनो सुरति हमरा दै जाहो<ref>दे जाओ</ref>, आरो<ref>और</ref> देहो आपन सनेह हे।
आहो, दुलहा हँसि मुख, खोलहु हे॥112॥
एतना बचन जब सुनलन दुलहा बाबू, सुनहु न पाओल हे।
आहो, मन भरि भोजन, कैलकै हे॥13॥

शब्दार्थ
<references/>