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कनेर का एक पेड़ और एक रास्ता... / आलोक श्रीवास्तव-२

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एक शाम याद आती है
धूसर रंगों में डूबी
तुम्हारा चेहरा नहीं
एक रास्ता याद आता है
जिसे चलते हुए
मैंने तुम्हारा शहर छोड़ा था

तुम किन अँधेरों में जीती रहीं
मैं कभी नहीं जान पाया
तुम्हारी अंतरात्मा का संगीत
कितना ज़िंदा रहा, कितना मर गया
इसकी मुझे कोई ख़बर नहीं

तुम्हारे जिन कनेर फूलों की ओट से
रात के चाँद की ओर
अपनी बाहें फैलाई थीं
एक दृश्य की तरह मन में
वह अब भी अटका हुआ है

मैं तुम्हारे बरसों पुराने उस रूप को
देखता हूँ- अपने एकांत में
और मेरी आँखें आँसुओं से भर उठती हैं
तुम्हारे सीने पर सर रखकर रोने का मन होता है

यह उजाड़–सा बीता मेरा जीवन
तुम्हें आवाज़ देता है
तुम हो इसी दुनिया में पस्त और हारी हुई
मुझसे बहुत दूर!

मेरी थकी स्मृतियों में
अब तुम्हारा चेहरा भी मुकम्मल नहीं हो पाता

दिखता है सिर्फ़
कनेर का एक पेड़
और एक रास्ता...