कन्धा / प्रतिभा किरण
यदि कोई मुझसे आकर पूछेगा
इस जीवन में तुमने क्या किया
तो मैं झट से बोलूँगी- कन्धा
हाँ मैं जीवन भर किसी कन्धे की तलाश में रही
मेरा हर कार्य किसी कन्धे को छूकर ही गुजरा
पर उससे अनजान मेरी तलाश जारी ही रही
हमेशा बिलबिलाती रही
हाय! हाय! कन्धा! कन्धा!
किसी कन्धे पर ही हाथ टिकाकर
मैं सारा जीवन किसी आटे की बोरी के सीवन सी रही
एक गाँठ क्या खुली आगे देखा न पीछे
धड़ाधड़ उधड़ती गयी
यह सोचकर कि
अभी फेंकी जाऊँगी किसी कन्धे पर
चैन भर के लिए
पर क्या पता था
मैं उधड़ने से पहले
किसी के कन्धे पर ही तो थी
भले ही सिली हुई
एक दिन किसी लड़के ने
मुझे अपने माञ्झे में लपेटा
और देर तक पतङ्ग उड़ाता रहा
पतङ्ग कटने के बाद
उसने माञ्झा अपने कन्धे पर रखा
मैंने सोचा
इतनी ऊँचाई से कन्धा तो दिखने से रहा
इसलिए मैंने उसे दो मीटर भर कोसा
एक सर्दी की रात किसी माँ के हाथों में रही
देखा उसके हाथों से बनी सुन्दर गोल रोटियाँ
बेटे को रोटी पूछने खातिर ज्यों ही
उसके कन्धे पर हाथ रखा
तो लड़के ने झटक दिया अपना कन्धा
और मैं माँ को हाथों से छूटकर
उसके शाॅल में जा चिपकी
रात भर माँ सिसकती रही
और ओढ़ लिया शाॅल अपने कन्धे पर
मैंने उस लड़के को तीन लोई भर कोसा