कन्धे पर हाथ रखने की राजनीति / देवी प्रसाद मिश्र
आए दिन ड्राइवर के कन्धे पर हाथ रखनेवाले
और उसका वीडियो बनाकर फ़ेसबुक पर
डालकर इस बात का मुज़ाहिरा करनेवाले
कि वह अपने नौकर-चाकरों से कितना
आत्मीय है, एक मालिक के कन्धे पर जब
एक दिन ड्राइवर ने भी हाथ रख दिया तो
मालिक को कुछ समझ में आया और कुछ
समझ में नहीं आया कि यह हो क्या गया
कि ड्राइवर ने उसे उसके बराबर मान कैसे
लिया और उसकी हिम्मत कैसे हुई कि वह
उसके कन्धे पर हाथ रख दे कि यह उसकी
ही ग़लती थी कि उसने ड्राइवर को यह छूट
दी, लेकिन अब वह करे तो क्या और ड्राइवर
को इसकी कौन सी सज़ा दे — वह लगातार
सज़ा के बारे में सोचता रहा और बहुत उचाट
रहा और कुढ़ता रहा और तड़पता रहा कि
कैसे इस बारे में सोचे न, लेकिन और कुछ
उसके दिमाग़ में आता ही नहीं था सिवाय
इसके कि जो उसके बराबर नहीं है और
जिसने उसके बराबर होने की कोशिश की
उसके समान होने के दुस्साहस को किस तरह
से डील किया जाए तो उसने ड्राइवर को सबसे
बड़ी सज़ा देने का फ़ैसला किया, जो मौत से
कम क्या होती तो उसने ड्राइवर को गोली
मारने का निश्चय किया और इस के लिए
एक सुनसान जगह पर ड्राइवर को कार रोकने
के लिए कहा कि वह पेशाब करना चाहता है
और ड्राइवर उसका तौलिया लेकर बाहर आ
जाए और जब ड्राइवर बाहर आ गया तो अपने
को मालिक समझने वाले ने उससे, जिसे वह
अपने से बहुत छोटा समझता था, कहा कि
उसे वह इस बात के लिए गोली मार देना
चाहता है कि मालिक के बराबर अपने को
समझने का ख़याल उसके दिमाग़ में आया
ही कैसे, तो ड्राइवर ने कहा कि यदि रिवॉल्वर चलाना
ही है तो इसका ऐतिहासिक इस्तेमाल
कीजिए और सब बराबर नहीं हैं इस विचार
पर चला दीजिए गोली जिसे सुनकर मालिक
को कुछ ज़्यादा समझ में नहीं आया और वह
कुछ विभ्रम की स्थित में ही था तो ड्राइवर
ने मालिक के काँपते हाथों से पिस्तौल ले ली
और अपने को ऊपर समझने वाले पर गोली
चला दी, यह कहते हुए कि सब बराबर नहीं
हैं के विचार पर मैं गोली चला रहा हूँ – एक
ऐसी हरकत, जो अधीन माने जाने वाले द्वारा
अधिपति के कन्धे पर हाथ रखने के विचार
से अधिक मूलगामी, समकालीन और
फ़ोटोजेनिक है और सात्विक हिंसा का वक्र-
तिर्यक उदाहरण ।