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कन्धे हुए / महेंद्र नेह
Kavita Kosh से
आँख होते हुए
लोग अन्धे हुए
स्वार्थ ही स्वार्थ के आचरण
हट गए अब सभी आवरण
धन्धा करते हुए
लोग धन्धे हुए
भाव ऊँचे चढ़े तो सपन
लाँघ आए हजारों गगन
गिर गए भाव तो
लोग मन्दे हुए
देश के नाम पर खा गए
धर्म के नाम पर खा गए
चन्दा करते हुए
लोग चन्दे हुए
चाहे उजड़े स्वयं का चमन
डालरी सभ्यता को नमन
सिर को गिरवी रखा
लोग कन्धे हुए
सोए हम तो जगाने लगे
जग गए तो सताने लगे
यों गले से लगे
लोग कन्धे हुए