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कन्धों को सीढ़ियाँ बनाकर ऊपर चढ़ते हैं / श्याम निर्मम
Kavita Kosh से
ऐसे ही वो बड़े हो गए पेड़ खजूरों-से
नहीं किसी को छाया दी
फिर, कैसे फल देते ?
अपनी ही
भाषा में मोहक नारे गढ़ते हैं,
कन्धों को सीढ़ियाँ बनाकर ऊपर चढ़ते हैं
मुट्ठी में सब क़ैद ग़नीमत —
नहीं मसल देते !
हम उनकी
कठपुतली उनके हाथों में नाचें,
वो आँखों की पुतली सबका भाग्य लिखा बाँचे
बीते-बिगड़े-कल से बेहतर
अच्छा कल देते !
चरण पखारें
लोग आचरण बड़े निराले हैं,
ऊपर तो बगुले-से दिखते भीतर काले हैं
कालिख के बदले गुलाल कुछ
मुँह पर मल लेते !
कुछ पैदाइश,
मुँह में चम्मच सोने की लाए,
अपने हिस्से भूख अनादर, लाचारी आए
ढोर समझकर ही हमको —
कुछ भूसा-खल देते !