भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कन्याकुमारी का समुद्र / तरुण

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

प्राण की सौ-सौ उछालों की पटलियों से तरंगित-
नील-जरतारी पहनकर रेशमी लहँगा,
ठुमक कर नाचती यह सिन्धु-कन्या
इस विजन में!
साँस में है अमर नील विषाद,
चरण में है मधुर किंकिणि-नाद;
चल रहे हैं वन्दना के स्वर सुगन्धित;
भुज-लताएँ मृदुलतम लहरा रही हैं।
हाथ में सन्ध्या-उषा के ज्वलित कुंकुम-थाल,
स्वप्न-विजड़ित कर्णचुम्बी पलक मंदिर विशाल!

रूप का बल न सह पायेगी
सुकोमल कंचना काया-
कि जिसमें ज्वार का जोबन का-
बिना तिथि-वार भर आया!

1963