भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कन्हैया हालरु रे / सूरदास

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

राग धनाश्री

कन्हैया हालरु रे ।
गढ़ि गुढ़ि ल्यायौ बढ़ई, धरनी पर डोलाइ, बलि हालरु रे ॥
इक लख माँगे बढ़ई, दुइ लख नंद जु देहिं बलि हालरु रे ।
रतन जटित बर पालनौ, रेसम लागी डोर, बलि हालरु रे ॥
कबहुँक झूलै पालना, कबहुँ नंद की गोद, बलि हालरु रे ।
झूलै सखी झुलावहीं , सूरदास बलि जाइ, बलि हालरु रे ॥

भावार्थ :--(माता गा रही हैं-)` कन्हैया, झूलो! बढ़ई बहुत सजाकर पलना गढ़ ले आया और उसे पृथ्वी पर चलाकर दिखा दिया, लाल! मैं तुझ पर न्यौछावर हूँ, तू (उस पलने में) झूल! बढ़ई एक लाख (मुद्राएँ) माँगता था, व्रजराज ने उसे दो लाख दिये । लाल! तुझ पर मैं बलि जाऊँ, तू (उस पलने में) झूल! पलना रत्न जड़ा है और उसमें रेशम की डोरी लगी है, लाल! मैं तेरी बलैया लूँ, तू (उसमें) झूल! मेरा लाल कभी पलने में झूलता है, कभी व्रजराज की गोद में, मैं तुझ पर बलि जाऊँ, तू झूल! सखियाँ झूले को झुला रही हैं, सूरदास इस पर न्योछावर है! बलिहारी नन्दलाल, झूलो ।'