भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कपड़े और चरित्र / मंजुला बिष्ट

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उनके पास कपड़े थे
किसी के पास ढेर सारे
तो किसी के पास बनिस्बत कुछ कम
जिन्हें पहनकर निकलने पर
कुछ लोगों ने उन्हें नग्न कहा

और जिन लोगों ने नग्न कहा
उनके पास भी खूब कपड़े थे
तो किसी के पास बनिस्बत कुछ कम भी
जिन्हें पहनकर निकलने पर
उन्हें कोई नग्न नहीं कह सकता था

फिर हुआ यह कि
कपड़ों और चरित्र के मध्य नैतिक जंग छिड़ गई
यह ज़ुबानी जंग धीरे-धीरे उनकी देह-आत्मा पर उतर आई

अब,हालात यह है कि
पहले वे पाई जाती थीं
अधमरी या पूरी तरह गला घोंटी हुई
रेल-पटरियों पर कटी-फटी
गीली सड़ी-गली लाश के रूप में

अब वे बरामद होने लगीं हैं
अधजली या पूरी तरह जिंदा भुने हुए गोश्त के रूप में
जिनकी चिरमिरायी गन्ध से मानसिक-विचलन तो है
कि हमारी गेंद किस पाले में होनी चाहिए

लेकिन सबकी पीठ
धरा पर बढ़ते जा रहे
इन जिंदा सुलगते श्मशानों की तरफ़ स्तब्ध है
हमारी व्यक्तिगत-प्रतिबद्धताएं मुँह बायें खड़ी हैं !

प्रतीक्षा करें!
शीघ्र ही हम सब
फ़िर अगली तीख़ी नैतिक-ज़ुबानी जंग हेतु लामबंद होंगे!