कपड़े टाँगने की चिमटी का खोना / हेमन्त कुकरेती
तेज़ हवा और तीखी सर्दी में आफ़त है
कपड़े टाँगने की चिमटी ढूँढ़ना
उड़ गये कपड़े तो रहेंगे नहीं
जो रहने के बाद फिर नहीं रहता
रहते जीवन तक दुख देता है
कपड़ों का न रहना
सिन्थेटिक धागों का कम होना नहीं है सिर्फ़
कपास की बनी जेब से खनकते सिक्कों का खो जाना है
सिक्के जिनका बाज़ार-भाव गिरने के बावजूद आदमी से ज़्यादा है
कपड़े न हुए कण्ठ की फाँस हो गये
कपड़े टाँगने की चिमटी न हुई दाँत हो गये
खुले मैदान अब रहे नहीं
आपस में कपाल सटाये छतें हैं खड़ी
जहाँ दूसरे की दीवार का गिरना कोई नहीं सुनता
चिमटी गिरने की आवाज़ सुन लेते हैं सब
जो गिर गया वह हो जाता है हरेक का
फिर बच्चों के लिए तो
हर चीज़ उनके रास्ते पर गिरी है
पृथ्वी तक उनके लिए पैरों पर पड़ी गेंद है
वे चिमटी को क्यों छोड़ेंगे
गिरे हुए को उठाकर हक़दार को देना मुश्किल है
हर समय के हर मौसम में
कपड़े टाँगने की चिमटी ही तो है खोने पर इतना क्लेश क्यों?
यही सोचते हैं हम और एक-दूसरे की चिमटी चुराकर
अपने कपड़ों कोा बचाते हैं
कपड़े ही तो हैं सोचकर उतारते हैं सरेआम
और जो नहीं देखता, उसे चिल्लाकर बताते हैं:
देखो, हमें देखो!