कपास के फूल की चिन्ता में / नरेन्द्र पुण्डरीक
किताबों में पढ़ा था और
पुरानें पुरखों की बतकही में सुना था कि
हर एक के जीवन में
गुलाब के फूल का मौसम आता है,
मुझे याद नही है
अपने जीवन में गुलाब का मौसम
शायद गुलाब के फूल के मौसम के दिनों में
हमें कपास के फूल की चिन्ता
इस कदर सवार रहती थी कि
हम इन्तज़ार करते थे हमेशा
परिवार या किसी रिश्तेदार की शादी का
जब कहीं से जुगत लगा कर
पिता बनवाते थे कपड़े
सो हमारा गुलाब के फूल का मौसम
कपास के फूल की चिन्ता में गुज़र गया,
कभी-कभी दो-दो साल
कपास के फूल की चिन्ता में गुज़र जाते थे
फिर ऐसी सकीनीं में
कहाँ से पाते जीवन में गुलाब के फूल ,
फिर मन तो आख़िर मन है
उसकी क्या कहें
कभी वह हुलसा ज़रूर होगा
ऐसे वक़्त में ज़रूर
दर्रा दे गई होगी पीछे से अपनी निक्कर
जिसे छुपाते हुए चुपके से
पीछे को सरक लिए होंगे हम,
समय भी क्या चीज़ है
जब कपास की कुछ चिन्ता कम हुई
तो पता लगा हमारे लेखे
गुलाब का मौसम ही चला गया
हमारे हिस्से में जो जुट-जुटा कर मिली
वही हमारे लिए गुलाब थी
वही चमेली ।