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कफ़न / बीरेन्द्र कुमार महतो

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आँसूओं में डूबी थी
हसरतें हमारी
कई-कई जख्मों का
इल्जाम था हमारे सर,
यूं तो इरादा न था
कत्लेआम की
पर उनकी कातिलाना
अदा देख
रोक न सका
जुल्म-ए-सितम
ढाने को,
बदकिस्मत वो थीं
या मैं
देखो, बैठे हैं
मेरी मैयत में
जनाजा गुजर रहा
हमसे पहले
हमारे ही कफन पर!