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कबर्ड / साधना सिन्हा
Kavita Kosh से
बंद था
एक कबर्ड में
सिमटा, सिकुड़ा
सारा जीवन
कुछ काग़ज़
कुछ चीज़ें
थीं सारी यादें
जीए जीवन की
कुछ सिहरन
सारा जीवन
खोलने जाती हूँ
अब भी जब
हाथ थम जाते हैं
जैसे प्रिय ने
ले लिए हों
हाथों में हाथ
रोने का जी होता है
रोकर जैसे
अच्छा लगता है
प्रिय के वक्ष पर
रखकर
दुख, दर्द, अपराध
सिर रखकर
कबर्ड पर
भूल जाती हूँ मैं
दिन बीत गए
अब
अन्दर हैं सामान
केवल नाम-
सर्टिफिकिट , इन्टरव्यू काल
प्रशस्ति पत्र, फोटो
चिट्ठियाँ ,छोटी-छोटी कतरन ।