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कबहुँ का सुनिहो मेरी टेर / स्वामी सनातनदेव
Kavita Kosh से
ध्वनि माढ़, कहरवा 28.8.1974
कबहुँ का सुनिहो मेरी टेर।
बिलखत ही बीतत यह जीवन, कहाँ लगाई देर॥
तुम बिनु प्रान प्रान-धन! व्याकुल, कैसे धीर बँधाऊँ।
मेरी जीवन-निधि तुम मोहन! कैसे तुमको पाऊँ।
कबहुँ का मिलि हो देर-सबेर॥1॥
हाय वृथा ही जीवन बीत्यौ, मिले न मनके मीत।
अटकत भटकत ही वय बीती, मिली न प्रीति पुनीत॥
कबहुँ का कटि है यह अन्धेर॥2॥
तुम बिनु कछु न सुहात साँवरे! कैसे वयस बिताऊँ।
कलपि-कलपि छिन होत कलपसम, कलपत ही रह जाऊँ॥
कबहुँ का अइहै मेरी बेर॥3॥
कैसे कहूँ, दयानिधि! मोसों होत न कछु अपराध।
अपराधी हों सदा-सदाको, तदपि यही है साध।
कबहुँ का अङहो सुनि मम टेर॥4॥
आवहु, आवहु प्रान हमारे, हरहु हिये की पीर।
अब यह सही न जात प्रानधन! वेगि बँधावहु धीर॥
अबहुँ का द्रविहो मेरी बेर॥5॥