भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कबहुँ तुम मिले न मन के मीत / स्वामी सनातनदेव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

राग भैरवी, कहरवा 10.7.1974

कबहु तुम मिले न मनके मीत।
सदा मिले हूँ लगहुँ अनमिले, कहा तिहारी रीति॥
जानत हों सब कुछ तुम ही हो, तदपि न होत प्रतीति।
एक बार जो दरस देहु तो मिटे भेदकी भीति॥1॥
तुमने ही करि कृपा गवाई अपनो यह गुन-गीति।
पै मन सूनो-सूनो लागत, जगी न पावन प्रीति॥2॥
रही कथन में ही रति-मति सब, बनी न निजकी नीति।
यह सब भले लेहु करुना करि, देहु मोहिं पद-प्रीति॥3॥
सदा मिले ही भासहु प्यारे! लगें भलै बहु ईति।
जो तुव पद-रति रहे हियेमें कौन सके जग जीत॥4॥
बहुत-बहुत तरसायो प्यारे! अब यह होय अतीत।
रहे सतत अनुभूति तिहारी, पल-पल बाढ़े प्रीत॥5॥