कबहूँ गंगा, कबहूँ जमुना, / सुभाष पाण्डेय
कबहूँ गंगा, कबहूँ जमुना,
कबहूँ सागर उमड़त सजोर।
अँखियन के इहे कहानी हS
बस लोर-लोर, बस लोर-लोर।
खउलत अदहन मन का बासन,
बनि भाप परात फफात रहे।
कुछ लोग कहल आँसू ढरकल,
कुछ लोग कहल बरसात रहे।
भींजल सनेह बान्हल अँचरा,
डूबल धरती के कोर-कोर।
ले लाल आँखि सूतलि सँझिया,
गोदी में लुकववलसि रतिया।
बिहनइयो अँखिया लाल रहे,
भूललि ना ऊ पाछिल बतिया।
जब घूघ उठवलें देव सुरुज
तब नाम दिआइल भोर-भोर।
केकर सवाँस बा परिखे के,
सभकर बा सीमित आसमान।
हुलस बिरह में, सुख में, दुख में,
केहि बिधि गगन घटा घहरान !
ताल-तलाई कुँइयाँ भरलसि,
भरि गइल जगत के हिय-कसोर।
नेहिए ममता के साथी हS
ढरि जाले चरन पखारन के।
तबहूँ पग धूरि सटाइल बा
कुछ हृदयहीन बटमारन के।
'संगीत' सँजो रखले तबहूँ
कुछ नमी दृगन के कोर-छोर।