कबाड़ख़ाना / आरती मिश्रा
आवाज़ दे रही थी कब से
घर में फैली धूल मुझे
जहाँ-तहाँ उगे मकड़ी के जाले
कोनों में ढेर लगे काग़ज़ और तमाम अटरम-शटरम
आज उठा ही ली झाडू हाथ में मैंने
धुँधलके में पसरे घर का रूपान्तरण सुबह की धूप में करने के लिए
आलमारियाँ पलटीं, ज़रूरतों को तराशती रही
बरसों बरस लिपटे मिले तहों में
किसी जेवर का ख़ाली डिब्बा
कोई तकाज़े की चिन्दी
एक साड़ी के पल्लू पर ड्राइक्लीनर की पर्ची अभी भी लगी थी
सबों के चेहरों पर जमी धूल पोंछती पटरियाँ बनाती गई
क़िस्से बन चुकी गाड़ियाँ एक बार फिर से
धड़धड़ाती गुज़रने लगीं
समन्दर किनारे पैर फैलाकर बैठ चुकी थी मैं
लहरें मुझे घुटनों तक भिंगोकर विलीन हो जातीं
और मैं अनवरत गिनती जा रही थी... एक...दो... तीन... चार...
इधर धूल की पँक्तियों का अनुवाद जारी था
मेरे जिए दिन डिब्बे में बन्द चिल्लरों की तरह खनखनाने लगे
एक पेटी ने खोल दिए पन्द्रह साल तो
उस बड़े बक्से में पूरे पैंतीस सालों का हिसाब-किताब था
डलियों में महीने पखवाड़े सप्ताह भरे मिले
आधा पहर ढल चुका होगा अभी
मैं टटोल रही थी मेज की दराज़ें
परदे कुशन लिहाफ़पोश खोल रही थी
सामने कचरे का ढेर लग चुका था
माँ बैठी थी पास हमेशा की तरह
निरखती हरेक चीज़ को
रखती हुई कुछ-कुछ कोने में आले में टोकरी में
वे डिब्बियाँ पानी की बोतलें
तहा-तहाकर पन्नियाँ सहेजती और मिठाइयों के ख़ाली डिब्बे
रख लेती थी सफ़र में खाना बाँधने के लिए
हमारे फेंके पेन-पेन्सिलों को भी वे
परखकर ही अलग रखती
संजो लेने की आदत कचरे को भी ज़रूरत में बदल देती
कि कई बार हम बिगड़ते काम बनाने
उस ढेर की तरफ़ बढ़ जाते और
मिल ही जाती हमें नई साड़ी में लगाने के लिए पुरानी आलपिन
या पापा के शर्ट का बटन
अब मेरे क़दम किताबों वाले कोने की ओर बढ़ चले
मैं एक एक काग़ज़ निरखने लगी थी, माँ की तरह
किताबों से धूल के अधिकार मिटाने में जुट गई
इस ज़रूरी कोने से गैरज़रूरी अलग कर सकने में
मैं असफल हो रही थी
धूल मेरे नाख़ूनों के भीतर और हथेली की महीन रेखाओं में भी समा गई
एक लम्बे और बेहद जद्दोजहद के बाद कम ज़रूरत का
एक ढेर बनाया मैंने
उस ढेर को कचरे की ओर खिसकाते हुए
मेरे हाथ दादी के झुर्रीवाले हाथों में बदल गए थे
उनकी थरथराहट को महसूसा मैंने तब और
समय से रद्द हो जाने की पीड़ा भी
कैसे बौखलाती बड़बड़ाती थीं वे
अच्छी-भली बातों के बीच पनिया जातीं उनकी आँखें
जब मैं कविताओं की बात करती या
छोटी बहन कोई तस्वीर बना रही होती
उन्हें याद आ जाते अपने हाथों के गढ़े कुठले-बखारी
काग़ज़ोंवाली फूल-सी हल्की टोकनियाँ
जिनमें दो-तीन दिनों तक नरम बनी रहती थीं रोटियाँ
दीवारों पर उगाई कलाकृतियाँ एक बार फिर से उग आतीं
एक पल के लिए मैंने दीवारों का लिप्यान्तरण कर दिया
समय की गोद में हमेशा के लिए नहीं मिलती पनाह
किसी को भी
मैंने थोड़ी देर के लिए किताबों का अनुवाद कुठलों में कर दिया
मेरे हाथ दादी के हाथ की तरह थरथराने लगे
उसी तरह बड़बड़ाने लगी मैं
और इतना ही नहीं माथे पर उग आईं नसें भी उसी लय में थरथराने लगीं
मैं धूल और कचरे के बीच बैठ गई
सब कुछ थामकर जैसे
कुछ भी खिसकने नहीं दूँगी
समय को भी नहीं
मेरा समय, जिसका हाथ पकडक़र अभी मैं खिलखिला रही हूँ
आँखों में आँखें डालकर रिझा रही हूँ
किसी प्रेमी की तरह वह मुझे
लम्बी ड्राइव पर चलने का आमन्त्रण दे रहा है
और अभी तो किसी भी रेस्त्रां के कोने मेें बैठकर
कॉफ़ी पी सकती हूँ उसके साथ
वह मेरा हाथ छुड़ा आगे बढ़े
मैं कचरे के ढेर में शामिल होऊँ, इससे पहले
कुछ कहना है मुझे, बहुत कुछ बेशक
जैसे काग़ज़ की चिन्दियाँ या रंग-बिरंगे कपड़ों की कतरनें
बोरे में भरी हों
ठीक वैसा ही भरा है मेरे भीतर, ठूँस-ठूँसकर
आज पूरा का पूरा कहना है और देर किए बग़ैर
मैं गर्द से ढँके अपने उन्हीं शब्दों को
धरती के पूरे फैलाव में बिखेर देना चाहती हूँ
मेरी नज़रें नहीं जातीं वहाँ भी