कबिरा खड़ा बाज़ार में जागे अउर रोए / दीपक जायसवाल
जब हम किले बना रहे होते हैं ख़ुद के लिए
उस वक़्त मृत्यु हमें देखकर क्या सोचती होगी
एक मात्र सत्य
व अपराजेय जो है
वह ईश्वर नहीं है
न ही जीवन
न माँ न पिता न बंधु
न अनन्त आकाश न सागर
न उजाला न अँधेरा न धरती
चाहे मैं जितनी ज़ोर से चिपका रहूँ इस जीवन से
एक दिन बिलकुल अनिश्चित समय बिन पूर्वसूचना के
मृत्यु मेरी गर्दन पकड़ेगी
मेरी सारी योजनाओं पर मिट्टी डालती हुई
घसीटती ले जाएगी निर्मम हत्यारे की तरह
अपने इर्द-गिर्द चाहे जितने जतन करें
दुःख से दूर होने के
चाहे जितने चद्दर ओढ़े
चाहे छिप जाएँ किसी दर्शन या ईश्वर के पीछे
त्रिगुनिया फाँस में मृत्यु इकदिन मेरा गला दबोचेगी
जैसे कसाई चढ़ता है बकरियों के गले पर।
जिन चीज़ों के लिए मैंने
कई-कई रातों तक आँसू बहाये हैं
उन्हें पाने के लिए सारे जतन किए हैं
उनके धुएँ और राख भी
नहीं बचेंगे मेरे लिए
अंत में बस बची रहेगी मृत्यु
हँसती हुई मेरे बनाए गए किलों को
कूड़े के ढेर की तरह लाँघती हुई।
बित्ते भर से भी कम की दूरी पर
पूरे जीवन खड़ी रही मृत्यु
आँखे मींचकर
भूकम्प की ज़मीन पर
क़िले की नीव पर नींव रखता रहा
महत्त्वाकांक्षाएँ खून पीती रहीं
अपनी आँतों में गहरा कुँआ खोदता रहा
जिसकी प्यास असीम थी
ओ कबीर, हो कबीर माया मरी न मन मरा
मर-मर गया शरीर
आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर।