भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कबिरा सोच रहा / कुमार रवींद्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कैसे धोवे
चादर मैली
कबिरा सोच रहा
 
लाख जतन कर ऋषि-मुनि हारे
उजली हुई न चादर
राम-रहीम-पीर-पैगंबर
सबका हुआ निरादर
 
किसकी माया
जग में व्यापी
कबिरा सोच रहा
 
राख-धुएँ का दरिया बहता
जिसमें डूबे सारे
जानबूझ कर जो हैं बूड़े
उनको कौन उबारे
 
साँसें क्यों हैं
हुई कसैली
कबिरा सोच रहा
 
पनघट-पनघट कबिरा ढूंढ़े
नेह-नदी का पानी
पूछ रहा वह
कहाँ खो गई अटपट मीठी बानी
 
दिन अंधा है
रात वनैली
कबिरा सोच रहा