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कबीरावली / महादेव खुनखुन

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सुख में तू भूल गया, देखा न पीर पराई।
नाव डुबे मझदार में, तब कौन तोहे पार लगाई।।

करम बुरा मानत नहीं, बुद्धि हो गई लाचार।
देखो दुनिया घूमके, सब गया बुद्धि से हार।।

आया है सो भोगो यहीं, मृत्यु लोक यही कहलाए।
ऋषि मुनियोगी तपस्वी, सब यही चवरासी में आओ।।

जात पात जन्म से है नहीं, भगवान रचा समान।
मानव जाति में मानव है सभी, जाने दुनिया जहान।।

बिना भोगे कोई बचा नहीं, राजा हो या फकीर।
महादेव खुनखुन भोगा है, बँधा है हाथो जंजीर।।

आत्मा पापी है या शरीर, कौन लिखा है यह उत्पात।
कौन नरक कौन स्वरग गया, बतावो हमें यह बात।।

तुलसीदास महान कवि, धरती पर दूसरा न कोई।
रत्न को रतना मिली, विधाता के लिखा सब होई।।

बिना दो के दुनिया नहीं, देवी देवता भगवती भगवान।
सब ग्रन्थन में लिखा है, लख चौरासी में प्रमाण।।

बच्चों में झंकार उठी, कर्मों के अनुसार।
माता पिता दोषी नहीं, मिलता वही जो अधिकार।।

जात पात कुछ भेद नहीं ईश्वर जीव दोनों एक।
हम एक पिता के पुत्र हैं, मानव स्वरूप अनेक।।

लख चौरासी योनि सभी, दुख सुख दोनों रहे भोग।
जो जिस में जन्म लिया, पावे उसी में वह रोग।।

नरक स्वरग कोई जाति नहीं, इस धरती पर भोगे सब कोई।
आवागमन के चक्कर यही, कोई हँसत कोई रहत है रोई।।

मन तो चंचल बना है, और फूल गया कुमलाए।
जीवन में अँधियारा छाया, तो भगवान कहाँ दिखाए।।

दुनिया में जो गरीब के गला काटे धन खाए।
नमक की तरह गल जावे, बिन मारे मर जाए।।

अत्मज्ञानी है सब दुनिया में ज्ञान कहीं न दिखाय।
सब कोई भगवान बनेंगे, दुनिया मंे भक्त ना दिखाए।।

चैन के कदर है तुम्हें, और विद्या है तुम्हारे पास।
तुम्हारा बड़ा उपकार है, करो महादेव पर विश्वास।।

जात-पात अरु भेद-भाव, धन बल के अभिमान।
सच पूछो ते वह मानव, बना है पूरा शैतान।।

विष को अमृत समझा, तन से छूट गया प्राण।
नया जन्म जब मिलेगा, महादेव को कौन सकेगा पहचान।।

लिखना पढ़ना करे सभी, तौपर ब्राह्मण पूजा जात।
पूजा तो भगवान की है, उस पर बैठे के करे बकवास।।

भगवान प्रकट भये सिम्बोल में,वही के मूर्ति बन जात।
मूर्ति पूजा होत घर-घर में, महादेव के मानो बात।।

छल कपट से प्रभु मिले ना, घूसभरे से मिलत नाय।
शुद्ध विचार से दर्शन मिले, महादेव कहे यही है उपाए।।

जिन्दगी देकर प्रभु, उसी में समाया है।
अपना अधिकार माँग रहा, सब पर हक जमाया है।।

अपना मन और विचार को, कोई न सका सम्हाल।
अपने आप पर काबू न रहा, महादेव क्यों करे सवाल।।

क्या फैसनी के धर्म नहीं, प्रभु नहीं है उनके साथ।
विश्वास में प्रभु विराजे, दुनिया में कोई नहीं अनाथ।।

गला काट के धनवान भये, चले वह छाती उतान।
गदहा बैल बन के भोगो, यही है ओकर पहिचान।।

सुख-दुख मनुष्य पशु प्रीत, सब है करम के हाथ।
प्रभु ऐसा विश्व रचा, पाप पुण्य है तुम्हारे साथ।।

मन सब के कलयुग बना, करम से हो गए हीन।
महादेव समझावे कोई न समझे, सब के बुद्धि मलीन।।

पशु प्रीत दानव सभी, भला यह सब है कौन जात?
महादेव ब्राह्मण से पूछा, डर गया सुन के ये बात।।

पाँच तत्व के शरीर, बन कर जब हो गया तैयार।
मल-मूत्र के मकान में महादेव बैठ के करे विचार।।

भगवान सब के सामने खड़ा, अन्धा बना है इन्सान।
रोम-रोम में गूँज रहा, बिरले रहे उसे पहचान।।

महादेव कहे समझाए सभी, सुन लो हमारी बात।
जो धरम करम भूला, अगले जन्म में पछतात।।

दारु के नसा उतर जात है, धन के नसा न जाए।
दिन-रात जोड़ते रहिओ, मर जाने पर भी ना भुलाए।।

पागल न बनो तुम, इस धरती पर मरता है न कोई।
आत्मा साफ करके देखो, आत्मा अमर सबके होई।।

मल-मूत्र से शरीर बना, फिर शुद्ध कैसे होई।
महादेव इस पर विचार करे, कौन पानी से इसे हम धोई।।

बिन धरती वृक्ष नहीं, जन्म बिना न कोई कर्म।
जल बिना कोई नाव नहीं, सत्य बिना ना कोई धर्म।।

ईश्वर जीव अमर है, पाँच तत्व भी है अमर।
नरक स्वरग जात कौन, महादेव पूछे कौन है जबर।।

कर्म जाल अपने बिनो, अपने ही खुद फँस जात।
दाँव पेंच कुछ चली ना, बड़ा खिलाड़ी भी फँस जात।।

घर के बच्चा पानी बिन तड़पे, बाहर पिए पियावे दारू।
घर के संस्कार कैसे सुधरी, जब दुकान के द्वारे है उतारू।।

नाच रंग बहु भाँति कीन, मन्दिर सजावे न कोई।
अपने-अपने रंग ढंग में, नाचे सब कोई।।

दो पन्ना वेद पढ़ के, सब मूर्खन के रहे भरमाए।
यही भ्रम में भर्मत रहे, पार उतारे वाला नरक में जाए।।

गुण-अवगुण सब में भरी, छल-कपट से भजे राम।
बीच उमर में नाव फँसी, जीभ पर ना आवे हरी नाम।।

हंस चुने हीरा मोती, मनुष्य चुने छर पात।
बिन बुद्धि बहक जाए, फँस गया अपने आप।।

मन पतंग उड़त जात आकाश में, जब लग डोर न कट जात।
जाए गिर दूर कहीं, यह आँखी से ना लखात।।

पानी से अग्नि बनी, दुनिया में रोशनी पहुँचाए।
तरंग उठी जब आग में, वही पानी बुझावन जाए।।

थोड़ा समय निकालो तुम, भज ले तू राधे श्याम।
ना जाने किस पल में, निकल जाए तन प्राण।।

पल-पल हरि नाम जपो, भगवान के शीस झुकाए।
गहरी नदिया वो पार करे, बिना नाव में बैठाय।।

विद्या है मूल धन, विद्या से बुद्धि होवे तेज।
उल्टा काम से मति भ्रष्ट, उसे पागल खाना में भेज।।

जिन्दगी को देने वाले, तुम्हीं हो सहायक हमार।
ज्योति जलाकर अँधेरे में, दूर करो अन्धकार।।

जाती-पाती के भेद नहीं, आत्मा का एक ही पहचान।
आदि सृष्टि में प्रभु रचा, रूप अनन्त जान।।

सन्त महात्मा हार गए, ब्रह्मा शक्ति के पार न पाए।
बर्षों बन-बन भटके, अन्दर में प्रभु बैठ के मुस्काए।।

जात कौन दुनिया पर, ब्रह्म है एक समान।
अनन्त रूप में प्रभु बसे, धरम-करम ब्रह्म ज्ञान।।

साधु-सन्त के जात नहीं, और ना योगि ऋषि-मुनि लोग।
औरों के नीच बतावे, बना दिया हिन्दू कौम में रोग।।

दुनिया में अपना बल कुछ नहीं, प्रभु बल में बलवान।
अपना अपना कर रहे, सब को तो जाना है श्म्शान।।

प्रेम छोड़े से दुनिया मरे, भगवान के यही न्याय।
जीवन में कोई साथ न दिहें, धरती में सभी समाय।।

चंचल मन चित चोर बना, बुद्धि से लिया न काम।
आँखे होत अन्धा बना, जिन्दगी हो गया बे काम।।

लाल खून सब के अन्दर, मानव रूप में लखात।
एक पिता के पुत्र हम सब, कहाँ है ऊँच-नीच की बात।।

जीव तो आता जाता है, करो सब कोई खूब विचार।
कौन जीव किस में गया, ऊँच नीच के झगड़ा है बेकार।।

देंहिया ले मन्दिर में बैठे, पंडित रहा मन्त्र उचार।
मनवा को राह पर बैठके, कनवा सुन के गैल स्वर्ग सिधार।।

मानव देहिया कबर बना, लम्बा है जीभिया हमार।
कौन साबुन से देंहिया साफ करूँ, ना मिली फिर उद्धार।।

मरके आत्मा भूत होईगे, परमात्मा होईगे सैतान।
ओझा के सितारा चमकल, घर घर में कलयुग बौरान।।

विद्या सब से बड़ा धन है, जीवन में और दूसर नाए।
मात-पिता दुश्मन बना, जो बच्चों को नहीं दिया पढ़ाए।।

करम है मूल जगत में, चंचल मन है अन्धकार।
ऊँच नाच के भरम में, जाए गिरे बीच मँझधार।।

सोच मुसाफिर अपने दिल में, महादेव कहे, क्रोध से रहो दूर।
दुनिया किसी के होत नहीं, ये कहावत है मसहूर।।