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कबीर / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
कहाँ रहे थे किस स्कूल में ? इतना जान गये !
अब तो लाखों-लाख चुका कर इतना सब कुछ मुश्किल
अमृत को होते देखा है इस कलियुग में पंकिल
बिना दिए आचार्य हो गये; तुमको मान गये ।
तुरक-हिन्दू का भेद न माना धर्मपुरुष भी हो कर
अब तो दंगे बात-बात पर दोनों ही करवाते
डर लगता है मन्दिर-मस्जिद हो कर आते-जाते
काट लिया कैसे निर्भय हो कुटिया में ही सो कर ।
कैसे तुमने जान लिया, जन से है बड़ा न कोई
अब तो जेता यही मानते कौन बड़ा है मुझसे
क्या बतलाऊँ इनके कितने कैसे-कैसे किस्से
करघे पर ही कैसे रह गये, चिढ़ी नहीं क्या लोई ?
लाख गुणों के तुम निर्गुणिया, जीवन की परिभाषा
जब तक मेरे साथ, तभी तक है कविता से आशा ।