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कबूतर अकेला / हरीश भादानी
Kavita Kosh से
किस दिशा को डड़े
अब कबूतर अकेला !
बांग भरती हुई
जब मुंडेरें उठीं
फड़फड़ा गई पांखें
सूत रोशनी का
ले सुई सांस की
पिरोती गई आंखें
बुन गए आकाश में
कुछ धुएं आ अड़े
किस दिशा को उड़े.....
पांत से टूट कर
छांह की माप के
कई रास्ते रच गए
छोर साधे हुए
बीच गहरा गई
खाइयों में मुच गए
देह होकर जुड़े वे
सब जुदा हो खड़े
किस दिशा को उड़े.....
उड़ना पंछी को
घेरे पिंजरे में
मौसम का बहेलिया
साखी सूरज का
झुरियाया चेहरा
रात के अंधेर दिया
कुनमुनाई चोंच को
बींध नेजे गड़े
किस दिशा को उड़े
अब कबूतर अकेला!