भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कबूतर और मैं (3) / प्रताप सहगल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आज अंडे फूट रहे हैं
एक-एक करके फूटे हैं वे
और दो मांस के लोथड़ों ने
दस्तक दे दी है
इस दुनिया के कपाटों पर
गर्मियों के आने के साथ
अब सुबह-शाम
देखता हूँ उन बच्चों को
बड़ा होते हुए
कबूतरी घंटों बैठी रहती है
उन्हें ममता का स्पर्श देती
चौकस सी देखती रहती है
किसी संभावित हमले को लेकर
पेरशानी है
उसकी आँखों में
नहीं चाहती कबूतरी कि
किसी की नज़र भी पड़े
उसके उन दो बच्चों पर
उन्हें पंख लगने तक।