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कबूतर / शंख घोष / प्रयाग शुक्ल
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उस कबूतर ने पास आ मेरी ही कार्निश के
दिखाया मुझे निज को। इस तरह देखा था क्या कभी?
उसकी कोमलता को जानता। दुपहर को दूर चली जाती
स्वर ध्वनि उसकी पारकर पहाड़ देशकाल
जानी है।
वे सब नहीं हैं सुख रेखाएँ
छाती में उसकी श्वेत, कितने ही नख-क्षत
देख लिए मैंने आज,
जैसे ही उठाए हुए कितने ही मेघ भार
छोटी उस छाती में —
चाहता चुुम्बन वहाँ, मेघों को फोड़कर चाहता
होना वृष्टि, खोलकर डैनों को चाहता झर जाना
मर जाना अन्तिम बार गेरूआ माटी में —
छुऊँगा नहीं उस कबूतर को और कभी आगामी शीत में।
मूल बंगला से अनुवाद : प्रयाग शुक्ल
(हिन्दी में प्रकाशित काव्य-संग्रह “मेघ जैसा मनुष्य" में संकलित)