कब के बाँधे ऊखल दाम / सूरदास
राग सारंग
कब के बाँधे ऊखल दाम ।
कमल-नैन बाहिर करि राखे, तू बैठी सुख धाम ॥
है निरदई, दया कछु नाहीं, लागि रही गृह-काम ।
देखि छुधा तैं मुख कुम्हिलानौ, अति कोमल तन स्याम ॥
छिरहु बेगि भई बड़ी बिरियाँ, बीति गए जुग जाम ।
तेरैं त्रास निकट नहिं आवत बोलि सकत नहिं राम ॥
जन कारन भुज आपु बँधाए,बचन कियौ रिषि-ताम ।
ताह दिन तैं प्रगट सूर-प्रभु यह दामोदर नाम ॥
भावार्थ :-- (गोपी कहती है -)`कब से इस कमल-लोचन को रस्सी में ऊखल के साथ बाँधकर तुमने बाहर (आँगन में) छोड़ दिया है और स्वयं सुखपूर्वक घर में बैठी हो ! तुम बड़ी निर्दय हो, (तुम में) तनिक भी दया नहीं है; तभी तो (मोहन को बाँधकर) घर के काम में लगी हो । देखो तो श्यामसुन्दर का शरीर अत्यन्त कोमल है और भूख से इसका मुख मलिन हो गया है । झटपट खोल दो, बड़ी देर हो गयी, दो पहर बीत गये; तुम्हारे भय से बलराम भी पास नहीं आते, न कुछ बोल ही सकते हैं ।' सूरदास जी कहते हैं कि मेरे प्रभु ने भक्तों (यमलार्जुन) के लिये अपने हाथ बँधवाये हैं और देवर्षि नारद के क्रोध में कहे वचन (शाप)को सत्य किया (उस शाप का उद्धार करना सोचा) है ! इसी दिन से तो इनका दामोदर यह नाम प्रसिद्ध हुआ है ।