भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कब गवारा है मुझे और कहीं पर चमके / शहबाज़ ख्वाज़ा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कब गवारा है मुझे और कहीं पर चमके
मेरा सूरज है जो फिर मेरी ज़मीं पर चमके

कितने गुलशन कि सजे थे मिरे इक़रार के नाम
कितने ख़ंजर कि मिरी एक नहीं चमके

जिस ने दिन भर की तमाज़त को समेटा चुप-चाप
शब को तारे भी उसी दश्त-नशीं पर चमके

ये तिरी बज़्म ये इक सिलसिला-ए-निकहत-ओ-नूर
जितने तारीक मुक़द्दर थे यहीं पर चमके

यूँ भी हो वस्ल का सूरज कभी उभरे और फिर
शाम-ए-हिज्राँ तिरे इक एक मकीं पर चमके

आँख की ज़िद है कि पलकों पे सितारे टूटें
दिल की ख़्वाहिश कि हर एक ज़ख़्म यहीं पर चमके