भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कब तक इंतजार / बाजार में स्त्री / वीरेंद्र गोयल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बीते समय की परछाइयों का पीछा करते
प्रेम-कथाओं के अनेक क्लोन
रह-रहकर अंतराल पर
इंतजार करते हैं
प्रेम का अनुत्तरित रुदन
कभी मुक्त नहीं करता
झुलसाती हुई तड़प से दूर
ऐसी कोई जगह नहीं मिलती
जहाँ अतीत की परछाइयों को
एकांत में, अपने हाथों से
अपने हृदय को मरोड़ते हुए
देख सकें, बहा सकें आँसू
गिन सकें प्रेम और वासना के क्षण
जो कभी हाथ नहीं आये
बस जलता हुआ नरक है
अतीत से भविष्य तक फैला हुआ
क्षितिज की लहरों के जैसे
पकड़ में आता, छूटता
क्या कुछ ऐसा है?
जो रखा जा सके सहेजकर
हाथों में,
सपनों में,
स्मृतियों में,
कब तक
आखिर तो हर चीज का क्षरण होता है
नियम के विरुद्ध क्या होगा?
कैसे होगा?
आखिर तो ब्रह्मांडीय स्मृति भंडार भी मिटेगा
लिखी जायेगी फिर से नई इबारत
नये प्राणी, पेड़, पौधे
जानवर, पंछी, पहाड़
लिखी जाएँगी फिर नई प्रेमकथाएँ
फिर वही इंतजार
तड़पन, झुलसन अन्तहीन
कैसे करोगे?
क्या खड़े रहोगे तब तक?
या दोहराओगे अनंतकाल तक
जब तक कि हो न जाये मिलन
परछाइयों से परछाइयों का।