कब तक करेंगे जब्र दिल-ए-नासबूर पर / 'बेख़ुद' देहलवी
कब तक करेंगे जब्र दिल-ए-नासबूर पर
मूसा तो जा के बैठ रहे कोह-ए-तूर पर
कोई मुझे बताए कि अब क्या जवाब दूँ
वो मुझ से उज्र करते हैं मेरे कुसूर पर
तालिब हैं जो तेरे उन्हें जन्नत से क्या ग़रज़
पड़ती नहीं है आँख शहीदों की हूर पर
जलवा दिखाइए हमें बा उज़्र हो चुका
जलने के वास्ते नहीं आए हैं तूर पर
ज़ाहिद भी इस ज़माने के आशिक़ मिज़ाज हैं
जीते हैं उस को देख के मरते हैं हूर पर
घर कर गईं न दिल में मेरी ख़ाक-सारियाँ
नाज़ाँ थे आप भी बहुत अपने ग़रूर पर
बख़्शे गए न हम से जो दो-चार बादा-ख़्वार
भिनकेंगी मक्खियाँ हैं शराब-ए-तुहूर पर
कुछ शोख़ियों के रंग भी बे-ताबियों में हैं
किस की नज़र पड़ी है दिल-ए-नासुबूर पर
ज़ाहिद की तरह हम को भी जन्नत की हैं तलाश
अपना भी आ गया है दिल इक रश्क-ए-हूर पर
रक्खे कहीं ये शौक़-ए-रिहाई मुझे न क़ैद
तड़पा अगर यहीं तो रहेंगे ज़रूर पर
‘बेख़ुद’ न ढूँढ कोई वसीला नजात का
ये मुनहसिर है रहमत-ए-रब्ब-ए-ग़फूर पर