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कब तक सहेंगे ज़ुल्म रफ़ीक़ो-रक़ीब के / अदम गोंडवी
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कब तक सहेंगे ज़ुल्म रफ़ीक़ो-रक़ीब<ref>दोस्त-दुश्मन, मित्र-शत्रु</ref> के ।
शोलों में अब ढलेंगे ये आँसू ग़रीब के ।
इक हम हैं भुखमरी के जहन्नुम में जल रहे,
इक आप हैं दुहरा रहे क़िस्से नसीब के ।
उतरी है जबसे गाँव में फ़ाक़ाकशी की शाम,
बेमानी होके रह गए रिश्ते क़रीब के ।
इक हाथ में क़लम है और इक हाथ में क़ुदाल,
बावस्ता हैं ज़मीन से सपने अदीब के ।
शब्दार्थ
<references/>