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कब तलक / ओमप्रकाश सारस्वत

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बैलों के चुपड़े हुए सीगों को देखकर
हमने सीख ली है
अपने नाख़ूनों में पॉलिश लगाना
ताकि मनुष्य होने के अभ्यास में
कुछ इज़ाफा हो सके

हमारे बुज़ुर्ग मर गए हैं
केसरी अनुभव लेकर
अब हमें बाजरे की बालियाँ
स्वयं ही बीननी हैं
और खुद ही छाननी है बची हुई चोकर
इस ढंग से
कि मेहनत रोटी हो सके
कुदाली की माँग पर
खेत की ख़ुशी के लिए

यहाँ सैंकड़ों चेहरे हर रोज़
असंख्य गालियों की ‘बिब्लियोग्रैफी’ वाले
भूख के ‘थीसिस’ हो रहे हैं
और जो ढो रहे हैं दोहरे लेख
अपने दुर्भाग्य और उनके पुरुषार्थ के
व्यंग्य से विडम्बना तक
नियति के भ्रम में

अब व्यापक हितों की रक्षा हेतु
ढूंढ रहे हैं लोग गुमशुदा बीवियां
लावारिस बेटियाँ
प्यार की गलियों में
सहयोग के तौर पर
स्वयं सेवकों की तरह


सभाएं नारे उगलती हैं चौराहों पर
संसद होने को
देश : द्रौपदी की देह हो रहा है
लाज के नाम पर

सदस्य कर रहे हैं प्रचार
मीसा ब्रह्मास्त्र का बचाव के पक्ष में
और हम इस समाजवादी दफ्तर में
अफसरों की कुर्सिफाँ हो गए हैं

अब कुल-हित के लिये,परिवार
पूजा किया करेंगे
लूप महर्षि की
बच्चों के जन्म-दिवस पर
माँ के स्वास्थय के लिए

यहाँ विकास के लिए विरोध और विद्रोह
शांत हो रहे हैं समझौतों में
गर्दनें सीख गयीं हैं
कालरों से घिर कर रहना
बालों ने खिजाब का रंग स्वीकार कर लिया है
और ’लोअर कट’ मूछें
पहले की कह चुकी है
‘योरज़ फैथफुल्ली’
फिर जय प्राकाश हो या द देसाई
रजनीश हो या साईं
अपने लिये तो सभी सिरताज़ हैं
पर पता नहीं जनता कब जाकर बनेगी
लोकनेत्री अथया भगवती

यह क्रोशियानिट ज़िन्दगी
कब तलद बुनती रहेगी शाल
और तुम कब तलक सराहते रहोगे
इसी डिज़ाईन को
अरे,कुछ तो नकार-नकार कर निरुत्साहित करते हैं
और तुम सराह-सराह कर
निकम्मा कर रहे हो

अब बदलने दो दिज़ाईन को
नयी देह के लिए
नयी माँग तक
जीवन संस्तुतियों की जालसाज़ी से तंग आ गया है

यहाँ व्यस्था का कुकर खराब हो गया है
उसमें अब चीज़े समय पर नहीं पकतीं
सारा टाईमटेबल ग़लत हो रहा है


इसलिये हम कहते हैं कि
एक बार, बस एक बार
जलने दो हीटर को
मीटर के मूल तक
पर बुढ़ऊ नुक्ते नित्य सावधान हैं
मुझे ख़तरा है कि किसी चालू इशारे पे
आग कहीं पानी न पी लें

पर तुम कब तलक छान-छान कर
पीते रहोगे चाय
और करते जाओगे छाननी की तारीफ़

बन्धु! याद रखना
एक दिन यही चाय, जलाएगी छाननी
और फिर हम देखेंगे
कि तुम कब तलक
बुझाते रहोगे फूँक से चकमक