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कब शौक़ मिरा जज़्बे से बाहर न हुआ था / शाकिर खलीक
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कब शौक़ मिरा जज़्बे से बाहर न हुआ था
था कौन सा क़तरा जो समुंदर न हुआ था
क्या याद तिरी दिल को मिरे कर गई तारीक
इक गोशा भी तो इस का मुनव्वर न हुआ था
किस तरह कोई अहद-ए-वफ़ा मुझ से करे आज
जब रोज़-ए-अज़ल में ये मुकद्दर न हुआ था
दीदार की हसरत ही हुई वजह-ए-तअस्सुफ़
क़िस्मत में मिरी हर्फ़ मुकर्रर न हुआ था
आँखों में जगह उस को मिली वाह रे तक़दीर
वो क़तरा जो ख़ुश-बख़्ती से गौहर न हुआ था
ग़र्क़ाब हुई कश्ती-ए-हस्ती लब-ए-साहिल
‘शाकिर’ तो अभी उस का शनावर न हुआ था