कब से इस दुनिया का सरगम-ए-सफ़र पाता हूँ मैं / 'शफ़ीक़' जौनपुरी
कब से इस दुनिया का सरगम-ए-सफ़र पाता हूँ मैं
फिर भी हर मंज़िल को पहली रह-गुज़र पाता हूँ मैं
मुर्शिद मय-ख़ाने के क़दमों पे सर पाता हूँ मैं
अब दिमाग़-ए-मै-परस्ती अर्श पर पाता हूँ मैं
हर तरफ़ साक़ी तिरा फ़ैज़-ए-नज़र पाता हूँ मैं
ख़ान-क़ाहों में भी मस्ती का असर पाता हूँ मैं
दब-ब-दम उस रूख़ पे इक हुस्न-ए-दिगर पाता हूँ मैं
हर निगाह-ए-शौक़ को पहली नज़र पाता हूँ मैं
सजदा उस का हैं जबीं उस की है क़िस्मत उस की है
जिस की पेशानी पे उन की ख़ाक-ए-दर पाता हूँ मैं
अल्लाह अल्लाह साकिनान-ए-कू-ए-जानाँ का वक़ार
हर गदा-ए-आस्ताँ को ताजवर पाता हूँ मैं
अर्श को हैरत हरम को वज्द नाज़ाँ बंदगी
हाए वो आलम कि जब सजदे में सर पाता हूँ मैं
ले गए किस के रूख़ ओ गेसू बहार-ए-रोज़-ओ-शब
मुद्दतों से घर को बे-शाम-ओ-सहर पाता हूँ मैं
दूर होती है रह-ए-ग़र्बुत में कोसों की थकन
जब किसी मंज़िल पे कोई हम-सफर पाता हूँ मैं
अहल-ए-महफ़िल होंगे क्या अहल-ए-बसीरत ऐ ‘शफ़ीक’
मीर-ए-महफ़िल ही को बे-फ़िक्र-ओ-नज़र पाता हूँ मैं