भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कब से उलझ रहे हैं दम-ए-वापसीं से हम / बिस्मिल सईदी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कब से उलझ रहे हैं दम-ए-वापसीं से हम
दो अश्क पोंछने को तिरी आस्तीं से हम

होगा तुम्हारा नाम ही उनवान-ए-हर-वर्क़
औराक़-ए-ज़िंदगी को उलट दें कहीं से हम

संग-ए-दर-ए-अदू पे हमारी जबीं नहीं
ये सज्दे कर रहे हैं तुम्हारी जबीं से हम

दोहराई जा सकेगी न अब दास्तान-ए-इश्क़
कुछ वो कहीं से भूल गए हैं कहीं से हम

‘बिस्मिल’ हरीम-ए-हुस्न में हैं काम-याब-ए-शौक़
जोश-ए-शबाब ओ रंग-ए-रूख़-ए-आतिशीं से हम