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कभी-कभी खुद से पूछते हैं / सूरज राय 'सूरज'

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कभी-कभी ख़ुद से पूछते हैं।
कि ख़ुद को हम कितना जानते है॥

हरेक पल ख़ुद से जूझते हैं।
तभी ज़माने से जीतते हैं॥

मलो न चेहरे पर रंगे-मज़हब
ये सिर्फ़ ख़ूं ही से छूटते हैं॥

चटक रही हैं बदन की सांसे
चले भी आओ कि टूटते हैं॥

गिरे-पड़ें या मिले न मंज़िल
तुम्हारी बैसाखी तोड़ते हैं॥

वो ज़ख़्म जो न भरे अभी तक
तुम्हारे बारे में सोचते हैं॥

तलाश तो है, पता है, लेकिन
पता नहीं किसको ढूंढते हैं॥

भुलाओ तुम या तुम्हें भुला दें
ये फ़ैसला तुम पर छोड़ते हैं॥

ज़ुबाँ किताबों की बन्द कर दें
अगरचे हम कम ही बोलते हैं॥

सुरों से बांधें दिलों के धागे
सिरों से तो गाँठ बांधते हैं॥

ये ख़्वाहिशों का जूनून "सूरज"
ख़ुद ही से ख़ुद ही को मांगते हैं॥