भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कभी-कभी बहुत भला लगता है / उमाकांत मालवीय
Kavita Kosh से
कभी-कभी बहुत भला लगता है —
चुप-चुप सब कूछ सुनना
और कुछ न बोलना ।
कमरे की छत को
इकटक पड़े निहारना
यादों पर जमी धूल को महज़ बुहारना
कभी-कभी बहुत भला लगता है —
केवल सपने बुनना
और कुछ न बोलना ।
दीवारों के उखड़े
प्लास्टर को घूरना
पहर-पहर सँवराती धूप को बिसूरना
कभी-कभी बहुत भला लगता है —
हरे बाँस का घुनना
और कुछ न बोलना ।
काग़ज़ पर बेमानी
सतरों का खींचना
बिना मूल नभ छूती अमरबेल सींचना
कभी-कभी बहुत भला लगता है
केवल कलियाँ चुनना
और कुछ न बोलना ।
अपने अन्दर के
अन्धियारे में हेरना
खोई कोई उजली रेखा को टेरना
कभी-कभी बहुत भला लगता है
गुम-सुम सब कुछ गुनना
और कुछ न बोलना ।