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कभी-कभी बहुत भला लगता है / उमाकांत मालवीय

कभी-कभी बहुत भला लगता है —
चुप-चुप सब कूछ सुनना
और कुछ न बोलना ।

कमरे की छत को
इकटक पड़े निहारना
यादों पर जमी धूल को महज़ बुहारना
कभी-कभी बहुत भला लगता है —
केवल सपने बुनना
और कुछ न बोलना ।

दीवारों के उखड़े
प्लास्टर को घूरना
पहर-पहर सँवराती धूप को बिसूरना
कभी-कभी बहुत भला लगता है —
हरे बाँस का घुनना
और कुछ न बोलना ।

काग़ज़ पर बेमानी
सतरों का खींचना
बिना मूल नभ छूती अमरबेल सींचना
कभी-कभी बहुत भला लगता है
केवल कलियाँ चुनना
और कुछ न बोलना ।

अपने अन्दर के
अन्धियारे में हेरना
खोई कोई उजली रेखा को टेरना
कभी-कभी बहुत भला लगता है
गुम-सुम सब कुछ गुनना
और कुछ न बोलना ।