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कभी-कभी मैं / आन्ना अख़्मातवा

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कभी-कभी
मैं तुम्हें याद करती हूँ
इसलिए नहीं
कि भाग्य तुम्हारे से सम्मोहित मैं हूँ
बल्कि इसलिए
नहीं मिटा पाई हूँ अब तक
छाप आत्मा से मैं अपनी
छोड़ गया है
जो छोटा-सा मिलन हमारा

गुज़रा करती जान-बूझकर
लाल मकां के पास तुम्हारे
बना हुआ है जो गंदली-सी नदी किनारे
मुझे पता है निर्दयता से
धूप-सनी नीरवता प्रिय की
भंग किया करती हूँ

नहीं भले ही हो अब तुम वह
जिसने मेरी इच्छाओंको
अमर किया स्वर्णिम गीतों में

जब शामें होती हैं गीली
और दुबारा मिलन हमेरा
हो उठता है बहुत ज़रूरी
(किन्तु करूँ क्या)
जब निषिद्ध यह
मैं भविष्य पर गुप्त रूप से
मोहन-मंत्र चलाती हूँ