भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कभी-कभी याद में उभरते हैं नक़्शे-माज़ी मिटे-मिटे से / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कभी-कभी याद में उभरते हैं, नक़्शे-माज़ी मिटे-मिटे से
वो आज़माइश दिलो-नज़र की, वो क़ुरबतें-सी, वो फासले से

कभी-कभी आरज़ू के सहरा में आ के रुकते हैं क़ाफ़िले से
वो सारी बातें लगाव की सी, वो सारे उनवां विसाल के से

निगाहो-दिल को क़रार कैसा, निशातो-ग़म में कमी कहां की
वो जब मिले हैं तो उनसे हर बार, की है उल्फ़त नये सिरे से

बहुत गरां है ये ऐसे-तनहा, कहीं सुबुकतर, कहीं गवारा
वो दर्द-पिन्हां कि सारी दुनिया रफ़ीक़ थी जिसके वास्ते से

तुम्हीं कहो रिंदो-मुहतसिब में है आज शब कौन फ़र्क़ ऐसा
ये आ के बैठे हैं मैकदे में, वो उठ के आये हैं मैकदे से