भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कभी-कभी / विवेक चतुर्वेदी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कभी-कभी
कितना लुभाता है,
कुछ भी ना होना
बैठना...
तो बस बैठे हो जाना
सरकना सरकंडों को छूकर हवाओं का
बस सुनना
कुछ भी न गुनना
कभी-कभी...