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कभी आओ मेरे कान्हा सुहानी ब्रज गलियन में / सुमन ढींगरा दुग्गल

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 कभी आओ मेरे कान्हा सुहानी ब्रज गलियन में
निहारूँ राह तेरी बावरी बन कर मैं मधुबन में

कहो क्यों तुमने बनवारी मुझे बांधा है बंधन में
लिए मैं प्रीत तुम्हारी भटकती हूँ यूँ कानन में

तड़पती हूँ मैं रोती हूँ सुना भी दे वो बंसी धुन
कहाँ ऐसी तड़प पाओगे दूजी कोई विरहन में

ये परछाई भी डसती है मुझे जब से गये हो तुम
अकेला छोड़कर गोपाल निर्जन याद के वन में

कटी ये रैन तृष्णा में तनिक विपदा सुनो मेरी
नयन ढूँढे तुझे मोहन बसे तुम ही तो नैनन में

खड़ी व्याकुल मैं सुनने तेरी ही पदचाप ओ कान्हा
नहीं तेरे सिवा कोई ए मुरली वाले धड़कन में

बुलाती हैं तुम्हें मोहन ये ब्रज की सूनी गलियाँ भी
चले आओ कदंब पर पड़ गये हैं झूले सावन में