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कभी आ के चुपके से सौगात रख दे / विकास जोशी
Kavita Kosh से
ख़िज़ाँ के उजड़ते शजर दे दिए
परिंदों को हमने ये घर दे दिए
सफ़ाई में हम और देते भी क्या
कटे जो सदाक़त में सर दे दिए
नवाज़ा है मंजिल से तूने उसे
हमें क्यूं मुसल्सल सफ़र दे दिए
बना के वो शय जिसको कहते है ग़म
उठाने को नाज़ुक जिगर दे दिए
बलाएं बुरी हमको छू ना सकें
तो मां की दुआ में असर दे दिए
फ़ना भी हुए तो महकते रहे
ये फ़ूलों को किसने हुनर दे दिए
दे ख्वाहिश को अंबर की ऊँचाइयाँ
यूं छूने को तितली के पर दे दिए