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कभी इस फ्रेम से बाहर कभी कोलाज से बाहर / शुभम श्रीवास्तव ओम

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कभी इस फ्रेम से बाहर कभी कोलाज से बाहर,
हमारा कल हमें करने लगा है आज से बाहर।

कभी पिंजरे,कभी फंदे,कभी नारे,कभी फतवे,
परिन्दे खुद ब खुद होने लगे परवाज़ से बाहर।

खुली मुट्ठी,झुके कंधे,ये उफ! संदेह वाले दिन-
कि हम गूँगे हैं या फिर हो गये आवाज़ से बाहर।

कलम,काग़ज,सुखनवर सबके सब में एक सी उलझन,
करें क्या?-दौर होता जा रहा अल्फाज़ से बाहर।

किसी के पाँव से दहलीज दफ्तर तक लिपट आए
कोई दहलीज के भीतर भी दिखता लाज से बाहर।

हमारी आपकी इस सर्वहारा सोच का हो क्या
बटन आना हुआ आसान कितान काज से बाहर।