भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कभी ऐसा हो / स्वप्निल श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कभी ऐसा हो कि
तुम हथेलियों से ढाप लो
मेरा चेहरा
पीछे मुड़कर देखने का
मौक़ा न दो

मैं स्पर्श से पहचानकर
तुम्हें चकित कर दूँ

कभी ऐसा हो
तुम जंगल में छिप जाओ
मैं तुम्हारी महक से तुम्हें
खोज लूँ

कभी ऐसा हो कि
सारे शब्द गुम हो जाएँ
हम स्पर्श को अपनी भाषा
बना लें

कभी ऐसा हो
मैं तुम्हारे होंठ पर रख दूँ
अपनी उँगली
तुम सितार की तरह बजने
लग जाओ

कभी ऐसा हो
हम दोनों बिछुड़ जाएँ
और उम्र भर एक दूसरे को
खोजते रहें