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कभी ऐसा हो / स्वप्निल श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
कभी ऐसा हो कि
तुम हथेलियों से ढाप लो
मेरा चेहरा
पीछे मुड़कर देखने का
मौक़ा न दो
मैं स्पर्श से पहचानकर
तुम्हें चकित कर दूँ
कभी ऐसा हो
तुम जंगल में छिप जाओ
मैं तुम्हारी महक से तुम्हें
खोज लूँ
कभी ऐसा हो कि
सारे शब्द गुम हो जाएँ
हम स्पर्श को अपनी भाषा
बना लें
कभी ऐसा हो
मैं तुम्हारे होंठ पर रख दूँ
अपनी उँगली
तुम सितार की तरह बजने
लग जाओ
कभी ऐसा हो
हम दोनों बिछुड़ जाएँ
और उम्र भर एक दूसरे को
खोजते रहें