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कभी कबाड़िया बनकर कभी नबी बनकर / कांतिमोहन 'सोज़'
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यह ग़ज़ल कृष्ण कल्पित के नाम
कभी कबाड़िया बनकर कभी नबी बनकर ।
मैं अपने गाँव में आया हूँ अजनबी बनकर ।।
कभी मकान के मलबे में मुझको कुछ न मिला,
कभी चुभी है कोई कील रौशनी बनकर ।
अजब है याद के जंगल में आँसुओं का हुजूम,
कभी खुला है कोई रास्ता हँसी बनकर ।
मैं जिसको मान चुका था कभी की सूख चुकी,
वो डाल मुझसे लिपटती है फिर हरी बनकर ।
अजब हैं दिल के मसाइल किसी से क्या कहिए,
छलक उठा है मेरा दर्द ख़ामुशी बनकर ।
मैं इसपे नाज़ करूँ या शरम से डूब मरूँ
तमाम ज़िन्दगी काटी है आदमी बनकर ।।