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कभी कभी जो वो मिलता तो / अमीन अशरफ़
Kavita Kosh से
कभी कभी जो वो मिलता तो दिल में जा करता
विसाल-ए गोश-ए बाब-ए सुख़न भी वा करता
वो ख़ुदशनाश भी,खूवे तलब से वाकिफ़ भी
अलम शनास भी होता तो आसरा करता
ये इत्तेदाल तकाज़ाए ज़िन्दगी भी है
मिज़ाज-ए संग को शीशे से क्यूँ जुदा करता
ज़रो ज़मीं की नहीं जंग ये अना की थी
मैं उस से झुक के न मिलता तो और क्या करता
सबूत ला न सका अपनी बेगुनाही का
वो शर्मसार न होता तो और क्या करता
न पड़ती उस पे जो गर्द-ए मुआमलात-ए जहाँ
जराहतों का चमन ख़ुद बख़ुद खिला करता
न जाने शोख़ी-ए फ़ितरत है ये खसार-ए दिल
उमीद-ए अफ्व न होती तो क्यूँ ख़ता करता
हरीस-ए आरिज़-ओ लब हूँ तो कशमकश क्या है?
फ़क़ीर-ए शहर तिरे हक़ में भी दुआ करता