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कभी कभी तो जज़्बे-इश्क़ मात खा के रह गया / नासिर काज़मी

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कभी कभी तो जज़्बे-इश्क़ मात खा के रह गया
कि तुझसे मिल के भी तेरा ख़याल आ के रह गया

जुदाईयोँ के मरहले भी हुस्न से तही न थे
कभी कभी तो शौक़ आइने दिखा के रह गया

किसे खबर कि इश्क़ पर क़यामतें गुज़र गईं
ज़माना उस निगाह का फ़रेब खा के रह गया

चिराग़े-शामे-आरज़ू भी झिलमिला के रह गये
तिरा ख़याल रास्ते सुझा सुझा के रह गया

चमक चमक के रह गयीं नजूमो-गुल की मंज़िलें
मैं दर्द की कहानियां सुना सुना के रह गया

तेरे विसाल की उमीद अश्क़ बन के बह गयी
खुशी का चांद शाम ही से झिलमिला के रह गया

वही उदास रोज़ो-शब, वही फुसूं, वही हवा
तेरे विसाल का ज़माना याद आ के रह गया।