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कभी कहीं हम-तुम मिलते, जब मिलते/ विनय प्रजापति 'नज़र'

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लेखन वर्ष: 2004

कभी कहीं हम-तुम मिलते, जब मिलते
लड़ते-झगड़ते, बिगड़ते-बड़बड़ाते
रूठते-मनाते और फिर चिढ़ते-चिढ़ाते
कभी कहीं हम-तुम, कभी कहीं हम-तुम

नहीं तुम, नहीं तुम! तुम्हें कुछ नहीं आता
इस बात पर तुम लड़ती, मैं झगड़ता
काश! ऐसा भी तेरे-मेरे साथ हो जाता
कभी कहीं कभी कहीं, कभी कहीं हम-तुम

पीछे-पीछे मैं तुम्हारे आता, तुम पलटती
मैं तुमको फूल देता और मुस्कुराता
तुम रूठती, मुँह बनाती, मैं मनाता
कभी कहीं कभी कहीं, कभी कहीं हम-तुम

छोटी-छोटी बातों पर बार-बार चिढ़ जाती
चिढ़कर मुझको चिढ़ाती, मुँह फुलाती
आँखें दिखाती, रूठी हो मुझको जताती
कभी कहीं कभी कहीं, कभी कहीं हम-तुम

कभी-कभी चोरी-चोरी तुम मुझको देखती
मैं कहता ‘क्या है’, तुम कहती ‘कुछ नहीं’
हम आँखों में एक-दूसरे का दिल पढ़ते
कभी कहीं कभी कहीं, कभी कहीं हम-तुम