कभी कुछ यूँ भी तो हो / नीता पोरवाल

कभी कुछ यूँ भी तो हो...

कि सीख जाऊँ
एक दुकानदार की तरह
ज़रूरत और खुशियों की माप करते पलड़े को
अपनी मन मर्जी से झुकाना

कि सुन सकूँ
ठोकरों से लगातार खडखडाती
खाली टीन सी चेतना में भी
पुरसुकूं देती जल तरंग की धुन

कि देख सकूँ
भोंथरे चाक़ू से अहर्निश काटे जाते
मृत पड़े अनगिनत टुकड़ों को
एक खूबसूरत गुलदस्ते की तरह

कि बेध सकूँ
चक्रवात से क्षत विक्षत
संवेदनशून्य हो चुकी इंसानियत की क्षुद्र आँख
कुंती पुत्र अर्जुन की तरह

गोकि वक्त का तकाज़ा है...
हुनरमंद होना ही चाहिए मुझे
हर विधा में... हर हाल में मुझे...

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