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कभी गुमान कभी ए’तिबार बन के रहा / ग़ालिब अयाज़

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कभी गुमान कभी ए’तिबार बन के रहा
दयार-ए-चश्म मे वो इंतिज़ार बन के रहा

हज़ार ख़्वाब मिरी मिलकियत में शामिल थे
मैं तेरे इश्क़ में सरमाया-दार बन के रहा

तमाम उम्र उसे चाहना न था मुमकिन
कभी कभी तो वो इस दिल पे बार बन के रहा

उसी के नाम करूँ मैं तमाम अहद-ए-ख़याल
दरून-ए-जाँ जो मिरे सोगवार बन के रहा

अगरचे शहर में ममनू थी हिमायत-ए-ख़्वाब
मगर ये दिल सबब-ए-इंतिशार बन के रहा